सच्चर कमेटी की रपट के मुताबिक, करीब 32 फीसदी मुसलमान अनपढ़ और 30 फीसदी गरीब हैं। मुसलमानों में ‘पसमांदा’ समुदाय है, जिसके 80 फीसदी से अधिक लोग गरीब बताए जाते हैं। प्रधानमंत्री भी अक्सर ‘पसमांदा मुसलमानों’ का जिक्र करते रहे हैं। उस लिहाज से 32 लाख मुसलमानों को ‘ईदी’ देना बहुत कम संख्या है। फिर भी एक ऐसा प्रयास किया जा रहा है, जो भाजपा और आरएसएस को भी बहुत पहले करना चाहिए था। प्रधानमंत्री के ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास, सबका प्रयास’ नारा भी कितना चरितार्थ होगा, इसका आकलन ईद के बाद किया जाएगा। प्रधानमंत्री मोदी ने 13 अप्रैल को ‘बैसाखी’ और 18 अप्रैल को ‘गुड फ्राइडे’ के दिन भी ऐसी ही किट बांटने का निर्णय लिया है।
सवाल है कि ‘सौगात-ए-मोदी’ के जरिए देश की करीब 15 फीसदी आबादी के एक तबके को राजनीतिक, सामाजिक और सामुदायिक तौर पर भाजपा के साथ जोड़ा जा सकता है? मुसलमान ‘जनसंघ’ के दिनों से ही इस हिंदूवादी विचारधारा की पार्टी के खिलाफ रहे हैं। 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा-एनडीए को देशभर में औसतन 10 फीसदी मुस्लिम वोट मिले थे, जबकि विपक्ष के ‘इंडिया गठबंधन’ के पक्ष में 65 फीसदी मुसलमानों ने वोट दिए थे, लेकिन गुजरात में भाजपा के पक्ष में 29 फीसदी मुस्लिम वोट आए थे। यहां ‘इंडिया’ को 59 फीसदी वोट मिले थे। यह प्रतिशत राजस्थान और दिल्ली के चुनावों में भी बढ़ा।
प्रधानमंत्री मोदी की 11 साला सत्ता के दौरान औसतन 8 फीसदी मुस्लिम मत ही भाजपा की झोली में आते रहे हैं। हालांकि प्रधानमंत्री आवास योजना में 1.30 करोड़ लाभार्थी मुसलमान हैं। ‘किसान सम्मान राशि’ योजना में भी करीब एक-तिहाई लाभार्थी मुसलमान ही हैं। ‘तीन तलाक’ सरीखा आपराधिक कानून मोदी सरकार ने ही पारित कराया था, जिसके जरिए मुस्लिम औरतों की गरिमा, प्रतिष्ठा और शादीशुदा जिंदगी को एक कानूनी आयाम मिला। मोदी सरकार की कई योजनाएं मुसलमानों पर ही केंद्रित हैं, लेकिन उस अनुपात में मुसलमानों ने भाजपा को ‘चुनावी समर्थन’ नहीं दिया है। कांग्रेस ने ‘सौगात-ए-मोदी’ को एक छलावा, फेंका हुआ टुकड़ा करार दिया है।
शाश्वत तिवारी
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं साइबर जर्नलिस्ट एसोसिएशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)
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